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मोहन भागवत के बयान पर बिशपों का विरोध: प्रणब मुखर्जी के नाम पर नई बहस

मोहन भागवत के बयान पर उठा नया विवाद

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का हालिया बयान एक नए विवाद का कारण बन गया है। भागवत ने पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के नाम पर कुछ टिप्पणियां कीं, जिन्हें लेकर भारत के कैथोलिक बिशपों ने कड़ी आपत्ति जताई है। उन्होंने इसे न केवल झूठा बताया, बल्कि इसे एक गंभीर मुद्दा भी करार दिया।


क्या है विवाद?

भागवत ने अपने भाषण में दावा किया कि प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति रहते हुए ‘घर वापसी’ की सराहना की थी और संघ के धर्मांतरण विरोधी प्रयासों को समर्थन दिया था। उन्होंने कहा कि मुखर्जी ने संघ के प्रयासों की तारीफ करते हुए इसे आदिवासियों को राष्ट्र-विरोधी बनने से बचाने वाला कदम बताया।

हालांकि, इस बयान पर कैथोलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया (CBCI) ने गहरी नाराजगी जताई और इसे “झूठा और दुर्भावनापूर्ण” बताया।


बिशपों का बयान: “प्रणब मुखर्जी के नाम का दुरुपयोग”

CBCI ने कहा, “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक मृत व्यक्ति के नाम का इस्तेमाल कर झूठा प्रचार किया जा रहा है। अगर यह बातचीत वास्तव में हुई थी, तो इसे प्रणब मुखर्जी के जीवित रहते ही क्यों नहीं उजागर किया गया?”

उन्होंने कहा कि ईसाई समुदाय, जो भारत का लगभग 2.3% है, इस तरह के प्रचार से गहराई से आहत है।


‘घर वापसी’ विवाद पर प्रतिक्रिया

आरएसएस द्वारा ‘घर वापसी’ का तात्पर्य उन लोगों की हिंदू धर्म में वापसी से है, जो ईसाई या मुस्लिम धर्म अपना चुके थे। भागवत ने कहा कि अगर संघ ने इस पर काम नहीं किया होता, तो 30% आदिवासी “राष्ट्र-विरोधी” हो गए होते।

बिशपों ने इस बयान को खारिज करते हुए कहा कि यह ईसाई समुदाय को बदनाम करने और देश में धार्मिक सौहार्द को कमजोर करने का प्रयास है।


“पूर्व राष्ट्रपति का अपमान”

बिशपों ने कहा कि प्रणब मुखर्जी के नाम पर किया गया यह दावा न केवल झूठा है, बल्कि यह उनके बहुलवादी और धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण का अपमान भी है। उन्होंने इसे “शैतानी और भयावह” करार दिया।


क्या कहता है ईसाई समुदाय?

कैथोलिक बिशपों का कहना है कि ईसाई समुदाय हमेशा से शांतिप्रिय और सेवा-उन्मुख रहा है। उन्होंने आरएसएस पर आरोप लगाया कि वह धार्मिक विभाजन पैदा करने और ईसाइयों को “राष्ट्र-विरोधी” के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहा है।


निष्कर्ष: देश में नई बहस का जन्म

मोहन भागवत के बयान ने न केवल कैथोलिक समुदाय को, बल्कि देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को भी झकझोर दिया है। यह विवाद एक बड़ी बहस का रूप लेता दिख रहा है, जिसमें यह सवाल उठता है कि किसी भी संगठन को अपने प्रचार के लिए मृत व्यक्तियों के नाम का इस्तेमाल करने की अनुमति कैसे दी जा सकती है।

आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार और समाज इस विवाद पर क्या रुख अपनाते हैं।

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